मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

मेरा आठवाँ प्रकाशन  / MY Seventh PUBLICATIONS
मेरे प्रकाशन / MY PUBLICATIONS. दाईं तरफ के चित्रों पर क्लिक करके पुस्तक ऑर्डर कर सकते हैंं।

सोमवार, 31 दिसंबर 2018

जिंदगी का सफर




जिंदगी का सफर

आलीशान तो नहीं ,
पर था शानदार,
वो छोटा  सा मकान,
उसमें खिड़कियाँ भी थे,
दरवाजे भी थे और
रोशनदान भी,
पर कभी बंद नहीं होते थे.

चौबीस घंटे उनमें से जिंदगी गुजरती रहती थी.
किसी भी शाम देख लो जिंदगी का बेलेंस,
सुबह से ज्यादा ही रहता था.
रोज होता था इजाफा,
आती ज्यादा थी और जाती कम,
खर्च करते करते थक जाते थे
पर कम होती ही नहीं थी.

वक्त बदलता गया,
आदतें बदलती गईं,
जिंदगी ने नए करवट लिए,
कभी कभी अंधड़ तूफानों में ,
धारदार बारिशों में दरवाजे बंद होने लगे,
शायद जिंदगी को भी कई बार
बंद दरवाजों से लौटना पड़ा हो.
फिर भी हर शाम आती जाती
जिंदगी बराबर ही रहती थी.
जिंदगी का खाता न बढ़ता न घटता.

जिंदगी चलती रही उसी मकान में,
हर दिन का बेलेंस बराबर ही रहता,
समय के साथ साथ जीवन करवटें बदलती रही,
मौसम भी बदला, जीवन में अंधड़ तूफान बढ़े,
दरवाजों के साथ साथ अब खिड़कियाँ भी बंद होने लगे,
शायद अब जिंदगी को ज्यादा बार
बंद दरवाजों से लौटना पड़ रहा होगा,

अब जिंदगी के खाते में आवक कम
और जावक बढ़ने लगी,
बेलेंस घट रहा है,
आए दिन के अँधड़ तूफान से दरवाजे बंद होते
पर खोले भी नहीं जाते,
क्योंकि इतने में दूसरा अंधड़ आ धमकता है.,
दरवाजे बंद ही रह जाते हैं.
रोशनदान तो अब हमेशा के लिए बंद ही हो गए,
अब जिंदगी आती भी होगी
तो सदा ही लौट जाती होगी,
बंद दरवाजों को देखकर,
घर में जिंदगी का आना अब बंद हो गया है


स्वाभाविक ही है,
समय के साथ जिंदगी का हर पहलू बदलता है,
जो बढ़ेगा वह घटेगा ही,
शिखर पर चढ़ने वाला नीचे तो उतरेगा ना !
जिदगी का यह घटता बेलेंस कभी तो धरती पर आएगा,
कभी तो जीरो होगा,
बस उसी का इंतजार है,
इसी मकान में जिंदगी को बेरोकटोक आते हुए भी देखा है,
और जाते देखा है,
अब बंद दरवाजों से लौटते हुए भी देखा जा रहा है.

कभी तो थमेगी
पर थमते हुए देखना संभव नहीं है
पर कभी तो थमेगी,
जो हम न सही लोग तो देखेंगे
.

बुधवार, 7 नवंबर 2018

अतिथि अपने घर के




अतिथि अपने घर के

बुजुर्ग अम्मा और बाबूजी साथ हैं, 
उन्हे सेवा की जरूरत है,
घर में एक कमरा उनके लिए ही है 
और दूसरा हमारे पास.

दो कमरों के अपने मकान में
बिटिया को सहीं ढंग से पढ़ने की जगह नहीं थी,
इसलिए अपने दो कमरों के मकान को किराए पर देकर,
एक छोटे तीसरे कमरे वाला मकान किराए पर लिया था.

बड़े भैया हैं, 
पद-पैसा–प्रतिष्ठा सब कुछ है,
शांत स्वभाव के भी हैं, पर
भाभी को इन बुजुर्गों का साथ सुहाता नहीं है.
और इनको भी वहाँ संतुष्टि नहीं है.
आते हैं, मिलते हैं, चले जाते हैं,
साथ रह नहीं पाते, 
न ही रख पाते हैं.

भैया घर में कुछ कह नहीं पाते,
और ये, सुपुत्र हैं, अनुज हैं – 
कहना नहीं चाहते,
बात साफ है, 
अंजामे तौर पर मैं पिसती हूँ.

कहीं बाहर भी जाना हो तो, 
बुजुर्गों की चिंता सताती है,
इसलिए बाहर जाकर भी, 
बाहर का पूरा आनंद नही लिया जाता.

अभी दोंनों की तबीयत जरा नासाज है,
ननदजी आई हैं देखने, 
ननदोई रिटायर्ड हैं,
साथ आए हैं, 
समय का तो कोई आभाव ही नहीं है.


बड़ी हैं, 
तो घर पर अधिकार है, 
वे चाहती तो हैं, कि कुछ करूँ,
पर इससे पहले उनके लिए घर में इंतजामात भी तो करने होंगे,

मतलब, उनको या हमको कमरा नहीं मिलेगा,
मतलब, सबके बाद सोना और सबसे पहले उठना,
दिन में सोना  ?...
नौकरी जो करनी है..


कमरा तो गया ही, 
किचन भी हाईजेक हो जाएगा,
अब नाश्ता मे क्या होगा, 
लंच पैक में क्या और डिनर ..
मैं तय नहीं करती .

खैर हम तो फिर भी आते जाते, 
बाहर कुछ खा पी लेते हैं,
बेचारी बेटी पर तरस आता है, 
किसी तरह किसी बहाने 
नानी के पास भेज देती हूँ,
कभी कभार सोने कि लिए मैं भी चली जाती हूँ,

पर ये बेचारे कहीं आ-जा नहीं सकते,
घर की पूरी जिम्मेदारी जो है.
भाभी की जिम्मेदारी भले ही न हो,
ननद जी का तो हक बनता है, 
सेवा करने का,

सब झेलना पड़ता है, मजबूरन
सब सहना पड़ता है, 
सब सह रहे हैं
अपने ही घर में अतिथि बनकर रहना पड़ता है
रह रहे हैं.....वो भी 
चेहरे पर बिना किसी शिकन के...

......

बुधवार, 3 अक्तूबर 2018

तुम फिर आ गए !!!




तुम फिर आ गए !!!
---------------------------

बापू, तुम फिर आ गए !!!
पिछली बार कितना समझाया था,
पर तुम माने नहीं.

कितनी गलतफहमियाँ 
पाले हुए हो, कि लोग अब भी
यहाँ तुम्हारा अभिनंदन करेंगे.

और लोग यहाँ,
जमाने से नोटों पर लगी
तुम्हारी फोटो हटाने में लगे हैं
जगह तो बदल ही दी है.

चरखे संग फोटो खिंचवाकर
तुम्हारे चरखे वाली फोटो को
भुलावे में डालने की 
नाकाम कोशिश भी हो ही चुकी है.

और तो और
सरकारी शह पर,
गोड़से का मंदिर तो
बन ही गया है.

तुम्हारे मौत का
(उसे ये बलिदान नहीं कहते)
पुनरावलोकन करना चाहते हैं,
शायद यह जताने की कोशिश है 
कि तुम्हें गोलियाँ
गोड़से ने नहीं,
किसी और ने मारी थी.
खूनी गोड़से नहीं,
कोई और है.
गोड़से को निर्दोष साबित करने का 
एक प्रयास है.

खुद गोड़से ने 
कचहरी में बताया था कि :
"Why I killed Gandhi".
फिर भी ये लगे हैं 
उसे निर्दोष साबित करने,
दोषी नहीं जानता कि 
वह निर्दोष है,
यह लोग जानते हैं.

बापू, कभी गलती से भी
सामाजिक पटल पर 
तुम्हारी नजर पडे़ तो
बहुत जिल्लत होगी.

लोग पूछते हैं - गाँधी ने 
इस देश के लिए क्या किया?
नेहरू ने ऐय्याशी के सिवा 
क्या किया?

इतिहास न कोई जानता है,
न ही कोई जानना चाहता है
पर जिसके मुँह जो आए
बकता फिरता है

सामाजिक पटल पर कोई
रोक टोक तो है ही नहीं.

शर्म आती है 
उनकी भाषा पढ पढकर
आज के नेता तो 
राम और कृष्ण से भी
बड़े आँके जाते हैं
भले उनका ईमान 
गर्त में पड़ा हो.

इसीलिए फिर फिर कहता हूँ,
बापू अब मत आना.
अपनी ही तौहीन कराओगे
कहीं किसी नए नेता से टकरा गए
तो चुल्लू भर पानी को भी 
तरस जाओगे.
बाकी तुम्हारी मर्जी.
......

गुरुवार, 27 सितंबर 2018

चाँदनी का साथ


चाँदनी का साथ


चाँद ने पूछा मुझे तुम
अब रात दिखते क्यों नहीं?
मैंने कहा अब रात भर तो
साथ है मेरे चाँदनी.

क्या पता तुमको, मैं
कितना खुशकिस्मत खड़ा
बाजुओं में चाँदनी,
मैं उसकी बाहों में पड़ा

चँदनियाँ धरती से कितनी, तुम्हें
ताकतीं हैं रात भर
संग रातें तुम गुजारो
क्या हुई तुमको कमी

चाँद भी कुछ सोचकर
फिर हकबकाकर कह पड़ा
धरती से मिलने, मेरी चाँदनी
नित रात जाती है वहाँ.

तू भी धरती पर है जन्मा
वाह रे मानव, तेरे क्या भाग हैं.
चाँदनी मेरी सदा पर,
रात भर तेरे साथ है.
.....

शनिवार, 15 सितंबर 2018

श्राद्ध हिंदी का.




श्राद्ध हिंदी का.

फिर सितंबर आ गया और साथ आए कनागत या कहिए पितृपक्ष.  सितंबर में ही पितृमोक्ष अमावास्या होती है.  भारत के किसी राज्य में इसे पोला कहते हैं तो कहीं पोलाला अमावस्या कहते हैं. पर मान्यता सबकी एक है. लोग तिथि अनुसार अपने पूर्वजों – पितरों को श्राद्ध व तर्पण अर्पण करते हैं. ऐसा मानना है कि अमवास्या के दिन तिथि बिना देखे सब पूर्वजों को तर्पण अर्पण किया जा सकता है.

सितंबर के साथ ही आता है हिंदी दिवस – 14 सितंबर. उसके साथ ही जुड़े हैं - हिंदी सप्ताह, हिंदी पखवाड़ा और हिंदी मास. सबमें 14 सितंबर शामिल होता है. 

हर साल हिंदी के लिए भी पारंपरिक तौर पर  कार्यक्रम और क्रियाकलाप होने की वजह से यह मौका भी कुछ मिलता जुलता लगने लगने लगा है. ऐसा साफ दिखता है कि लोग मजबूरी मे हिंदी का दिन, सप्ताह पखवाड़ा या माह मनाते हैं.  श्रद्धा तो किसी को नहीं है. सरकारी आदेश न हो तो कोई इस तरफ झाँके भी ना.  

इसीलिए अनमना या निराश होकर ही सही इसे हिंदी का श्राद्ध कहने पर मजबूर होना पड़ रहा है.  जिस तरह श्राद्ध पक्ष के बाद अगले बरस सितंबर तक  कोई पूर्वजों को याद नहीं करता, वैसे ही हिंदी को भी कोई याद नहीं करता.

हाँ, अवमानना की बात तो है, शर्मसार होने की भी बात है, दुखी होने की भी बात है और हमारे खुद की बेइज्जती की भी बात है... पर यही है सच्चाई.

हाल ही में मॉरीशस में विश्व हिंदी सम्मेलन संपन्न हुआ. कहा गया कि हिंदी प्रगति कर रही है. कहीं किसी कोने से ऐसा तो लगा ही नहीं.  मेरे एक जानकार को सम्मेलन में उपस्थिति का न्यौता मिला. वे असमंजस में पड़ गए कि जाऊँ या नहीं. मुख्य मुद्दा था कि इसमें हिंदी की कौन सी भलाई होती है. खैर विचार अलग अलग हो सकते हैं. पर एक हिंदी भाषी बुद्ध जीवी के मन में ऐसा खयाल आना ही द्योतक है कि कहीं तो आग धधक रही है, धुआँ नजर आ रहा है. पर इससे किसको फर्क पड़ना है. सबको फॉर्मालिटी निभाना है, खानापूर्ति करनी है.

विदेश मंत्रालय से एक वक्तव्य भी आया कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थापित करने के लिए विशेष प्रयास किए जा रहे हैं.  खबरों पर जाएँ तो प्रयास तो कब से हो रहे हैं, किंतु नतीजे हैं कि आने का नाम ही नहीं लेते. ऐसे प्रयासों का भी क्या प्रयोजन ? सरकार को मिलाकर सब के सब खानापूर्ति में ही लगे हैं.  हिंदी बेचारी क्या करती ...जाए तो जाए कहाँ? 

हम भारतवासी या हिंदी भाषी सितंबर के श्राद्धकर्म के अलावा हिंदी के लिए कुछ भी नहीं करते. मुझे भी समाहित करके सारे हिंदी के लेखकों के लेखों का अवलोकन या कहें परीक्षण कीजिए. हर जगह मिलेगा कि हिंदी के उत्थान के लिए यह करना चाहिए. हिंदी को विश्व भाषा बनाने के लिए यह कदम उठाना चाहिए.  हिंदी को कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग की भाषा बनाने की जरूरत है. यानी सब के सब आशा वादी हैं सब के पास सलाह देने की क्षमता है. सारे पढ़े लिखे अकलमंद हैं. पर जहाँ उन सुझावों को कार्यान्वित करने की बात आती है... सबकी अकल मंद हो जाती है. किसी के भी कदम आगे नहीं बढते. हिंदी के लिए इस तरह की सोच और विचारधारा हिंदी के लिए ही बाधक है.

हर विधा में हम भारतीयों की यही ताकत और यही कमजोरी है. सुझाव आज देश मुफ्त में, कभी कभी तो बिना माँगे भी मिल जाएंगे पर कार्यान्वयन की ओर झाँकना भी हम मुनासिब नहीं समझते.
तो होगा क्या ? खयाली पुलाव पकते रहते हैं. यथार्थता वहीं की वहीं रहती है.

इसलिए मेरे भी एक सुझाव... हम हिंदी का भला नहीं कर सकते , नहीं कर पा रहे तो भी कोई बात नहीं, लेकिन हिंदी दिवस या अन्य पाखंडी नामों से जो नौटंकी कर रहे हैं वह सब करके हिंदी की बेइज्जती तो ना करें.

हमें चाहिए कि हम यह हिंदी दिवस के पाखंड को भी समाप्त कर दें.
न हिंदी दिवस होगा, न ही हिंदी का श्राद्ध.
.....

शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

सामाजिक पटल पर ट्रॉल





        
सामाजिक पटल पर ट्रॉल

अभी हाल एक दिलचस्प घटी.

लखनऊ पासपोर्ट कार्यालय में 20 जून 2018 को एक दंपति ने पासपोर्ट के लिए आवेदन किया. पासपोर्ट अधिकारी ने आवेदन के साथ लगे कागजात देखकर महिला से सवाल किया कि आपका नाम निकाहनामे में और दूसरे कागजात में अलग अलग है. आपको नाम परिवर्तन की कार्रवाई करनी  चाहिए. ऐसा कहा गया है कि महिला अपने पति का नाम अपने पासपोर्ट में अंकित करवाना चाहती थीं.

हाँ, यह मामला तन्वी सेठ और उनके पति अनास सिद्दिकी का है.

इसके आगे पासपोर्ट अधिकारी से क्या बात हुई उसका जिक्र महिला ने अपने ट्विटर से विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को और प्रधानमंत्री कार्यालय को प्रेषित किया. महिला ने लिखा कि पासपोर्ट अधिकारी विकास मिश्रा ने उनसे इतनी जोर से बात की कि सारे कार्यालय में उपस्थित लोग सुन रहे थे . उन्होंने इस दौरान अवाँछित हाथ के इशारे भी किए. तन्वी का कहना है कि अधिकारी ने उनसे अपना नाम बदलवाने की कार्रवाई करनी चाहिए” कहा . साथ में महिला ने यह भी लिखा कि उन अधिकारी ने मेरे पति से धर्मपरिवर्तन करने को और फेरे लेने के लिए कहा.

अखबारों में यह भी पढ़ा गया कि रीजनल पासपोर्ट अधिकारी पीयूष वर्मा ने महिला या उनके पति से कहा कि आपका केस गलत हाथों में चला गया है वरना यह समस्या नहीं होती. समाचार पत्रों ने लिखा कि विकास मिश्रा बताते हैं कि उनसे नाम परिवर्तन के कागजात माँगे थे, बस उसी में वे भड़क गईं और ये सब हुआ.
संदेश पाकर सबका मालिक एक” विदेशमंत्री स्वराज के मातहत मंत्रालय से पीयूष वर्मा को आदेश आया और एक घंटे के भीतर उन दंपतियों को पासपोर्ट मुहैया करा दिया गया. समाचार यह भी था कि विकास मिश्रा का तबादला कर दिया गया है. स्वाभाविक है कि दंपती ने स्वराज की भूरी - भूरी प्रशंसा की.

उधर आम जनता ने इसे सही नहीं पाया और सुषमा की कार्रवाई पर उंगलियाँ उठने लगीं.  सवाल थे कि –

1.     निकाह नामें में सादिया अनास नाम और कागजात में तन्वी सेठ दो अलग अलग नाम के बीच समन्वय के लिए नाम परिवर्तन की कार्रवाई के कगजात न होने पर  पासपोर्ठ अधिकारी विकास मिश्रा का, नाम परिवर्तन की कार्रवाई करने के लिए कहना या कागजात माँगना ... किस तरह से गलत थावरना यह कैसे मान लिया जाए कि तन्वी सेठ ही सादिया अनास हैं.  क्या दोनों में से किसी भी नाम पर पासपोर्ट जारी किया जा सकता हैऔर हाँ तो कल तन्वी सेठ सादिया अनास के नाम पर दूसरा पासपोर्ट बनवा सकती हैं . उनके पास दो नामों से अलग अलग पासपोर्ट रखने का अधिकार होगा. क्या यह सही है?

इसके गूढ़ को जानने समझने के लिए मैंने कुछ ऐसे लेगों से बात किया जिन्होंने शादी के दौरान धर्म परिवर्तन किया है और उनके पास पासपोर्ट है. निस्संकोच बताया गया कि पासपोर्ट तो वर्तमान नाम पर ही जारी किया जाता है. नाम परिवर्तन के हरेक  मौके के कागजात होने चाहिए. उनके अनुसार यदि उनका नाम निकाहनामे में सादिया अनास और अन्य कागजात में (जो निकाह के पहले के हैं) तन्वी सेठ है, तो पासपोर्ट सादिया अनास के नाम पर ही बनेगा बशर्ते तन्वी से सादिया नाम परिवर्तन की कार्रवाई के कागजात हों.  अन्यथा पासपोर्ट नहीं बन सकता. यदि तन्वी सेठ नाम से पासपोर्ट चाहिए तो पुनः सादिया अनीस से तन्वी सेठ नाम परिवर्तन के भी कागजात जरूरी हैं.

पर पता नहीं मंत्रालय ने ऐसा निर्णय कैसे लिया.

2.     विकास मिश्रा से किसी प्रकार सवाल - जवाब तलब किए बिना उस पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करना , उसका तबादला करना कितना वैधानिक था, या कानूनी दायरे में था ? शायद अधिकारियों ने जरूरी नहीं समझा कि तन्वी सेठ के इलजाम की सच्चाई जानी जाए.

जहाँ तक मुझे जानकारी है किसी भी व्यक्ति को सफाई का मौका दिए बगैर दोषी ठहराना गैरकानूनी है.

3.     पुलिस वेरिफिकेशन आने के पहले ही पासपोर्ट  कैसे जारी कर दिया गया यह तो समझ से परे है.

अंजाम यह हुआ कि गुस्से में जनता ने सुषमा की कार्रवाई को गलत ठहराया. यहाँ तक तो फिर भी शायद सँभलता, पर लोगों ने आगे भी कहा –

1.     सुषमा ने अल्पसंख्यकों की तुष्टीकरण के लिए कानूनी दायरे के बाहर निर्णय लिया है.
2.     किसी ने कहा कि कि पुलिस वेरिफिकेशन के बिना एक घंटे मे पासपोर्ट कैसे दे दिया गया.
3.     एक ने तो बात व्यक्तिगत ही कर दी कि सुषमा ने हाल ही में एक मुसलमान की किडनी ट्रान्सप्लांट करने के कारण वे मुसलमानों की पक्षपाती  हो रही हैं. इस पर लोगों ने सुषमा को सुषमा बेगम कहकर भी संबोधित किया.
4.     कुछ ने तो सुषमा के फेसबुक पेज की रेटिंग कम करने की चेष्टा भी की , काफी हद तक सफल भी हुए.
5.     एक मुकेश गुप्ता ने यहाँ तक कहा कि सुषमा के घर आने पर उसकी पिटाई करें. हालाँकि किसी की ओर शाब्दिक तौर पर यह संदेश इंगित नहीं था,  पर शब्दों से जाहिर था कि यह सुषमा के घर के बड़ों के लिए ही था.
इन सबके बावजूद सुषमा ने कोई  प्रतिरोध नहीं किया बल्कि कुछ ट्वीट्स को उन्होंने रिट्वीट भी किया.

इस बीच पुलिस वेरिफेशन रिपोर्ट आई कि सादिया अनास नोएड़ा में नौकरीबद्ध हैं , वहीं रहती हैं, पर आवेदन में पता लखनऊ का है. इसलिए पुलिस वेरिफिकेशन में आवेदन सही नहीं पाया गया.

अब अखबार फिर सक्रिय हो गए. रिपोर्ट आने लगी कि आवेदन में गलत पते की वजह से पासपोर्ट रद्द हो जाएंगे, तन्वी सेठ पर दंडात्मक कार्रवाई हो सकती है.. आदि आदि.

पर फिर मंत्रालय से सफाई आ गई कि नही आवेदन सही है क्यों कि  इसी एक जून के आदेशानुसार यह जरूरी नहीं है कि अवेदन रिहाइशी पते के अनुसार ही पासपोर्ट कार्यालय में दिया जाए बल्कि स्थायी पते के अनुसार भी किया जा सकता है. फिर सारी बातें दब गईं. लेकिन 29 जून 2018 को एकआदेश फिर उभरा कि कि आवेदन रिहाइशी पते के अनुसार ही जमा  करने का पुराना कानून फिर लागू हो गया है. 1 जून 2018 के कानून की जानकारी लखनऊ पासपोर्ट कार्यालय को और पुलिस विभाग को 20 जून 2018 तक नहीं थी और 29 जून 2018 को फिर पुराना कानून लौट जाता है... इसमें तो खेलने की बू आती है. सुषमा की कार्रवाई को सही जतलाने के लिए खेला गया खेल ही लगता है. इससे यह भी समझा  जा सकता है कि सुषमा का अपने मंत्रालय पर कितना नियंत्रण या पकड़ है या कहें कि सुषमा ने मंत्रालय में कितना आतंकखौफ फैला रखा है. सच्चाई तो मंत्रालय के लोग ही जानें.

इससे साफ जाहिर है कि इस मामले में कहीं कोई गडबड़ हुई है जिसे छिपाया गया.

जनता के उल्टे सीधे टिप्पणियों को सुषमा ने तो किसी तरह सँभाल लिया. किंतु उनके घर आने पर पीटने की टिप्पणी उनके पति स्वराज कौशल जी को नागवार गुजरी और उन्होंने उस पर अपनी राय रखी. उन्होंने कहा कि जब मेरी माँ एक साल भर बीमार थी, तब भी सुषमा ने एक साँसद और शिक्षामंत्री होते हुए भी, बिना किसी आया / परिचारिका के खुद ही उनका ख्याल रखा.  ऐसी सुषमा पर इस तरह की टिप्पणी से परिवार के सदस्यों को बहुत दुख होता है.

तब सुषमा ने जनता से अपील कर सर्वे करवाया कि क्या वह ऐसे टिप्पणियों का  ( जिनको ट्रॉल कहा जाता है) समर्थन करती है. सर्वे में 53 ने सुषमा का साथ दिया. मतलब जनता आधी - आधी बँट गई.

सुषमा के इस ट्रॉल पर काँग्रेस, ममता बेनर्जी, उमर अब्दुल्ला, ओवैसी, महबूबा मुफ्ती ने सुषमा का पहले साथ दिया. ममता ने इसे चौंकाने वाला और अनैतिक कहा.  महबूबा ने कहा  कि हमारे देश में महिला विदेश मंत्री पर यदि ऐसा ट्रॉल हो सकता है तो आम स्त्री के साथ क्या क्या हो सकता है. कोई मुफ्ती को समझाए कि ट्ऱॉल में लिंगभेद नहीं होता. वहाँ अक्सर हिंदू- मुस्लिम होता है. दूसरा ये राजनीतिज्ञ अपने स्वार्थ साधने के लिए कैसे अनभिज्ञ बनते हैं. ऐसे पेश आ रही हैं कि उनको देश भर में हो रहे ट्रॉल का कोई ज्ञान ही नहीं है. आप सामाजिक पटल पर हिंदू विरोधी, भाजपा विरोधी या मुस्लिम के पक्षापाती कुछ लिखिए तो आपको स्वतः पता चल जाएगा कि ट्रॉल क्या है और कौन कर रहा है.

बहुत समय बाद अन्य प्रतिपक्ष नेताओं का समर्थन देखकर, सुषमा की पार्टी के, यानी सरकार के नेता, भाजपा के नेता में से सबसे पहले राजनाथ सामने आए और मात्र इतना कह गए कि यह सही नहीं है. उन्होंने ट्रॉल करने वालों को किसी तरह के कार्रवाई की कोई चेतावनी भी नहीं दी. ऐसा साफ जाहिर था कि उनको मजबूरी में मुँह खोलना पड़ा, वरना वे चुप ही रहते.  मोदी तो मौन रहकर ट्रॉल को स्वीकृति दे रहे थे. मोदी को भले बोलने में जुमले बाजी में गलतियाँ करते देख सकते हैं, पर चुप रहकर समर्थन में उनका कोई सानी नहीं है. यह मै तो मान ही नहीं सकता कि मोदी की समझ में नहीं आता कि वे कर क्या रहे हैं? अखबारों ने यह भी लिखा है कि राष्ट्रपति  ने इस घटना के कुछ ही दिन बाद विदेश मंत्रालय के अधिकारियों से बात की . सुषमा की तारीफ भी की, पर इस ट्रॉल का कोई जिक्र नहीं किया.

अब सवाल यह उठता है कि क्या मान लिया जाए कि सुषमा, राजनाथ, ममता या अन्य राजनीतिज्ञों को पता नहीं है कि पार्टियों की आई टी शाखाएं सामाजिक पटलों पर ऐसे ट्रॉल में किस तरह की भाषा को प्रयोग कर रही है. कोई भी सभ्य नागरिक शर्मिंदा हो जाएगा.  वे सभ्यता की हर सीमा को पार कर जाते हैं. इतनी असभ्य भाषा से कोई भी कन्नी काट जाए और यही शायद वे चाहते भी हैं.  इतनी गंदी भाषा तो इस सरकार  के आने के बाद ही नजर आई है. अब जवाबी हमले में दूसरी राजनीतिक पार्टियाँ भी शामिल हो गई हैं. फलतः सामाजिक पोर्टलों की भाषा ही बदल गई है.

मैं मान नहीं पाता कि नेताओं को या सरकार को इसका पता नहीं है. कई जगह पढ़ा भी है कि वरिष्ठ सरकारी नेता इन ट्रॉलरों को फॉलो भी करते हैं. कुछ तो कागजात भी पेश करते हैं कि इनको ट्रॉल करने के लिए निश्चित एवं तय दर से पैसे  भी दिए जाते हैं. 

जब विदेश मंत्री (वह भी महिला) के ट्रॉल पर भी सरकार के मंत्री और वरिष्ठ नेता चुप्पी साधते हैं तो इससे बड़ा कौन सा गवाह चाहिए कि सरकार इसका समर्थन कर रही है. पर फिर भी सुषमा सहित किसी ने भी सामाजिक पटल पर ट्ऱॉल का  विरोध नहीं किया.

सुषमा के साथ ट्रॉल वाली घटना तो निंदनीय है ही पर आशा थी कि ऐसी कोई घटना हो तो नेताओं को अकल आ जाए कि कितनी बुरी भाषा में ट्रॉल हो रहा है. पर इसके बावजूद भी किसी के कान में जूं नहीं रेंगी. इन नेताओं से (नेत्रियों से भी)  मेरी विनती होगी कि वे सामाजिक पटल पर हो रहे ट्रॉल का जायजा लें तो पता चले कि सुषमा जी तो ढंग से ट्रॉल भी नहीं हुईं, मात्र कुछ अपशब्द कहे गए.

दुख तो इस बात का है कि खुद ट्रॉल होने के अनुभव पर भी सुषमा ने आम जनता के साथ हो रही  ट्रॉल पर कोई शिकंजा कसने की नहीं सोची.

पता नहीं यह रवैया कब कहाँ जाकर थमेगा.
.....

रविवार, 29 जुलाई 2018

बात कहनी है...



बात कहनी है.


तुमसे अब बात यही कहनी है 
कि तुमसे बात नहीं करनी है.

जुबां से मैं भी तुमसे कुछ न कहूँ
न मुख से तुम भी मुझसे कुछ कहना,

तुमसे कहने की बातें हैं बहुत,
मन मचलता है कि अभी कह दूँ,
पर जब सामने दिख जाते हो,
कुछ कहने का मन नहीं करता,
मेरा मन भीग भीग जाता है,
और कुछ कहने को नहीं रहता,

इसलिए मैने अब ये सोच लिया,
तुम से अब इतनी बात कहनी है,
तुमसे अब बात नहीं करनी है.

तुमसे बातें शुरू न हो, वही अच्छा है, 
वरना ये खत्म होने का नाम ही नहीं लेती,

जाने कहाँ से आती हैं ये बातें
घंटों तक दुनियां भुला ही देती है.
बाते पूरी तो हो नहीं पाती,
बिछड़ना गमगीन हुआ जाता है

इससे बेहतर ये मैंने सोच लिया
तुमसे बस इतनी बात कहनी है,
कि अब तुमसे बात नहीं करनी है.
.......

रविवार, 15 जुलाई 2018

हिंदी उच्चारण में सहयोग दें.



हिंदी उच्चारण में सहयोग दें.

                      मेरा लेख "हिंदी उच्चारण में सहयोग दें."  
                पूर्वी संभाग, कोलकाता,  
                इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन की            
                गृहपत्रिका "पहल" के आठवें संस्करण में 
                प्रकाशित हुआ है. 



                              आपने इसे ब्लॉग पर पढा ही 
                होगा. 

                पुनः आनंद लें. 


                लिंक दे रहा हूँ.








हिंदी उच्चारण में सहयोग कीजिए
(07.07.14 प्रेषित एवं 08.07.14 को हिंदी कुंज में प्रकाशित)

हर अभिभावक चाहेगा और उसे चाहना भी चाहिए कि उसके दिल का टुकड़ा आसमान की ऊंचाइयों को छुए. यदि उस मुकाम के लिए उसे हिंदी सीखनी या सिखानी पड़े तो लक्ष्य प्राप्ति के लिए वह हिंदी सीखेगा भी और सिखाएगा भी. अपने बच्चे को हिंदी के स्कूलों में भी पढ़ाएगा. तथ्यों की मेरी जानकारी के तहत भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है भाषा निरपेक्ष नहीं. इसलिए यहाँ आप किसी को भीकोई भी धर्म अपनाने से रोक नहीं सकतेलेकिन भाषा के मामले में ऐसा नहीं है और भारतीयों को हिंदी सीखने लिए कहा जा सकता है. मेरी समझ में केवल इतना ही आता है कि राजनीतिक समीकरणों के लिए हमने हिंदी की यह हालत बना दी है.

हिंदी सीखने में थोड़ी कुछ कठिनाइयाँ हैं जैसे उच्चारण और लिंग भेद. जिनमें उच्चारण पर मैं यहाँ विचार करना चाहूंगा. विभिन्न भाषा भाषी हिंदी का उच्चारण सही तरीके से नहीं कर पाते. हिंदी के जानकारों को चाहिए कि उन्हें सही उच्चारण से अवगत कराएंन कि उन पर हँसें. कई बार तो ऐसा समझ में आया है कि गलत उच्चारण के तर्कसंगत कारण हैं जिनका मैं यहाँ उल्लेख करना चाहूंगा.

दक्षिण भारतीय  “खाना खाया” का उच्चारण “काना काया” के रूप में करते हैं. वह इसलिए कि तामिल वर्णमाला में प्रत्येक वर्ग में दो ही अक्षर होते हैं जैसे कङ. वहाँ ख, ग, घ अक्षर नहीं होते. शब्दों के बीच में लिखने के लिए तीसरे अक्षर (ग) हेतु प्रावधान किया हुआ है.  इसालिए कमला व गमला शब्द कि लिपि तामिल में एक जैसी होगी. वैसे ही कागज व गागर में प्रथम दो अक्षरों की लिपि एक ही होगी. लेकिन जब उसे पढ़ा जाएगा तो दोनों को कागज और कागर पढ़ा जाएगा. इसलिए तमिल भाषा अन्य भाषाओं के सापेक्ष कठिन भी है. वे गजेंद्र को कजेंद्र कहेंगे और लिखेंगे भी. कभी सारा दक्षिण मद्रास हुआ करता था, सो यह कमिय़ाँ (खूबियाँ) कम – ज्यादा पर सारे दक्षिण में मिलेंगी. कर्नाटक व आँध्र वासियों के साथ यह संभावना कम होती है. तमिलनाड़ू के अलावा बाकियों को हिंदी से लगाव भले न हो पर नफरत तो नहीं है. तमिल में भी केवल शायद इसलिए कि हिंदी, तमिल को पछाड़कर राजभाषा का दर्जा पाई है. यहाँ भी यह राजनीतिक कारणों से ज्यादा पनपी है अन्यथा लोगों को कारण भी मालूम न हो.



https://laxmirangam.blogspot.com/2014/07/blog-post.html